Wednesday, 31 October 2018

अध्ययन का दावा, गर्मियों में बढ़ जाती है युवकों के मरने की आशंका

इसमें वर्ष 1980 से 2016 के बीच 8,58,54,176 पंजीकृत मौत के आंकड़ों पर अध्ययन किया गया.

लंदन: अमेरिका में रहने वाले युवकों के गर्मियों में मरने की अधिक आशंका है. एक अध्ययन में इसका दावा किया गया है. पत्रिका ‘ईलाइफ’ में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार यह करीब चार दशक में किए उन अध्ययनों में रेखांकित किए गए तथ्यों में से एक है, जो सार्वजनिक स्वास्थ्य रणनीतियों को अभी एवं भविष्य में होने वाली मौतों को कम करने में मदद करेगा.

ब्रिटेन में ‘इंपीरियल कॉलेज लंदन’ के रॉबी पार्क ने कहा, ‘‘यह पूरी तरह से स्थापित है कि मृत्यु दर साल के विभिन्न महीनों में अलग-अलग होती है, लेकिन इसके बारे में अधिक जानकारी मौजूद नहीं है कि कैसे यह स्थानीय जलवायु के हिसाब से बदलती है, और कैसे यह अलग-अलग उम्र में विभिन्न बीमारियों के लिए समय समय पर बदलती है.

1980 से 2016 के बीच हुईं 8,58,54,176 मौतें
इसमें वर्ष 1980 से 2016 के बीच 8,58,54,176 पंजीकृत मौत के आंकड़ों पर अध्ययन किया गया. ‘वेवलेट विश्लेषण’ तकनीक का इस्तेमाल कर इसका आकलन किया गया है. इसमें समय के साथ ‘मूविंग विंडो' के माध्यम से मृत्यु दर का अध्ययन किया जाता है. इसमें परिवर्तनों का पता चलता है. अध्ययन में पाया गया कि 45 वर्ष और उससे अधिक उम्र के पुरुषों में कुल मृत्यु दर (मृत्यु का कोई भी कारण) और 35 वर्ष और उससे अधिक उम्र की महिलाओं में मृत्यु दर दिसंबर, जनवरी या फरवरी में उच्चतम होती है और जून से अगस्त में सबसे कम.

जून और जुलाई में पुरुषों की मृत्यु दर सर्वाधिक
इसके विपरीत, पांच वर्ष और 34 साल की उम्र के पुरुषों में कुल मृत्यु दर (मृत्यु का कोई भी कारण) सर्वाधिक जून और जुलाई में होती है जबकि 45 साल से कम उम्र के स्त्री-पुरूषों दोनों के लिए चोट से होने वाली मौत गर्मियों में सबसे ज्यादा होती है. शोधकर्ताओं ने पाया कि पांच से 14 और 15 से 24 वर्ष आयु वर्ग के पुरुषों में गर्मियों और सर्दियों में होने वाली मौत के आंकड़ों में अंतर 25 प्रतिशत से भी अधिक था.

(इनपुट भाषा से)

दिवाली पर पटाखों की धूम की कर रहें है तैयारी, तो सेहत को ऐसे करें बचाव

ोशनी का त्योहार दिवाली अपने साथ बहुत सारी खुशियां लेकर आता है, लेकिन दमा, सीओपीडी या एलर्जिक रहाइनिटिस से पीड़ित मरीजों की समस्या इन दिनों बढ़ जाती है.

नई दिल्ली: दिवाली में पटाखों की धूम नहीं हो तो शायद कुछ कमी सी लगती है, लेकिन अगर पटाखें हमारे स्वास्थ्य को नुकसान व पर्यावरण को हानि पहुंचा रहे हैं, तो हमें इनके इस्तेमाल के बारे में सही से सोचने की जरूरत है. सर्वोच्च न्यायालय ने अपने हाल के फैसले में पटाखों का प्रयोग करने की इजाजत दिवाली की रात आठ से 10 बजे के बीच दे दी. इस दौरान दिल्ली व दूसरे महानगरों में प्रदूषण का स्तर निश्चित ही बढ़ा रहेगा. दिवाली की धूम-धड़ाम के बीच स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं से अपने को किस तरह से बचें व पटाखों से किस तरह बुजुर्ग व बीमार लोग अपनी स्वास्थ्य की देखभाल करें.

जेपी हॉस्पिटल के पल्मोनरी व क्रिटिकल केयर मेडिसिन के वरिष्ठ विशेषज्ञ डॉ. ज्ञानेंद्र अग्रवाल ने यह पूछने पर कि दमा के मरीज या आम व्यक्तियों पर पटाखों के धुएं का असर कैसे होता है? डॉ. अग्रवाल ने कहा कि रोशनी का त्योहार दिवाली अपने साथ बहुत सारी खुशियां लेकर आता है, लेकिन दमा, सीओपीडी या एलर्जिक रहाइनिटिस से पीड़ित मरीजों की समस्या इन दिनों बढ़ जाती है. पटाखों में मौजूद छोटे कण सेहत पर बुरा असर डालते हैं, जिसका असर फेफड़ों पर पड़ता है.

इस तरह से पटाखों के धुंए से फेफड़ों में सूजन आ सकती है, जिससे फेफड़े अपना काम ठीक से नहीं कर पाते और हालात यहां तक भी पहुंच सकते हैं कि ऑर्गेन फेलियर और मौत तक हो सकती है. ऐसे में धुएं से बचने की कोशिश करें.

डॉ. अग्रवाल कहते हैं कि पटाखों के धुएं की वजह से अस्थमा या दमा का अटैक आ सकता है. हानिकारक विषाक्त कणों के फेफड़ों में पहुंचने से ऐसा हो सकता है, जिससे व्यक्ति को जान का खतरा भी हो सकता है. ऐसे में जिन लोगों को सांस की समस्याएं हों, उन्हें अपने आप को प्रदूषित हवा से बचा कर रखना चाहिए.

पटाखों के धुएं से हार्टअटैक और स्ट्रोक का खतरा भी पैदा हो सकता है. पटाखों में मौजूद लैड सेहत के लिए खतरनाक है, इसके कारण हार्टअटैक और स्ट्रोक की आशंका बढ़ जाती है. जब पटाखों से निकलने वाला धुंआ सांस के साथ शरीर में जाता है तो खून के प्रवाह में रुकावट आने लगती है. दिमाग को पर्याप्त मात्रा में खून न पहुंचने के कारण व्यक्ति स्ट्रोक का शिकार हो सकता है.

डॉ. ज्ञानेंद्र अग्रवाल कहते हैं कि बच्चे और गर्भवती महिलाओं को पटाखों के शोर व धुएं से बचकर रहना चाहिए. पटाखों से निकला गाढ़ा धुआं खासतौर पर छोटे बच्चों में सांस की समस्याएं पैदा करता है. पटाखों में हानिकर रसायन होते हैं, जिनके कारण बच्चों के शरीर में टॉक्सिन्स का स्तर बढ़ जाता है और उनके विकास में रुकावट पैदा करता है. पटाखों के धुंऐ से गर्भपात की संभावना भी बढ़ जाती है, इसलिए गर्भवती महिलाओं को भी ऐसे समय में घर पर ही रहना चाहिए.

डॉ. अग्रवाल बताते हैं कि पटाखे को रंग-बिरंगा बनाने के लिए इनमें रेडियोएक्टिव और जहरीले पदार्थों का इस्तेमाल किया जात है. ये पदार्थ जहां एक ओर हवा को प्रदूषित करते हैं, वहीं दूसरी ओर इनसे कैंसर की आशंका भी रहती है.

Small cracks present in crackers affect the lungs

उन्होंने कहा कि धुएं से दिवाली के दौरान हवा में पीएम बढ़ जाता है. जब लोग इन प्रदूषकों के संपर्क में आते हैं तो उन्हें आंख, नाक और गले की समस्याएं हो सकती हैं. पटाखों का धुआं, सर्दी जुकाम और एलर्जी का काररण बन सकता है और इस कारण छाती व गले में कन्जेशन भी हो सकता है.

यह पूछे जाने पर कि पटाखों के जलने से किस तरह की गैसें पैदा होती हैं? डॉ. अग्रवाल ने कहा कि दिवाली के दौरान पटाखों के कारण हवा में प्रदूषण बढ़ जाता है. धूल के कणों पर कॉपर, जिंक, सोडियम, लैड, मैग्निशियम, कैडमियम, सल्फर ऑक्साइड और नाइट्रोजन ऑक्साइड जमा हो जाते हैं. इन गैसों के हानिकारक प्रभाव होते हैं. इसमें कॉपर से सांस की समस्याएं, कैडमियम-खून की ऑक्सीजन ले जाने की क्षमता कम करता है, जिससे व्यक्ति एनिमिया का शिकार हो सकता है. जिंक की वजह से उल्टी व बुखार व लेड से तंत्रिका प्रणाली को नुकसान पहुंचता है. मैग्निशियम व सोडियम भी सेहत के लिए हानिकारक है.

Try to avoid fumes

दिवाली के दौरान पटाखों व प्रदूषण को लेकर बीमार व्यक्तियों को क्या सावधानी बरतनी चाहिए? इस पर डॉ. अग्रवाल कहते हैं कि छोटे बच्चों, बुजुर्गों और बीमार लोगों को अपने आप को बचा कर रखना चाहिए. दिल के मरीजों को भी पटाखों से बचकर रहना चाहिए. इनके फेफड़ें बहुत नाजुक होते हैं. कई बार बुजुर्ग और बीमार व्यक्ति पटाखों के शोर के कारण दिल के दौरे का शिकार हो जाते हैं. कुछ लोग तो शॉक लगने के कारण मर भी सकते हैं. छोटे बच्चे, मासूम जानवर और पक्षी भी पटाखों की तेज आवाज से डर जाते हैं. पटाखे बीमार लोगों, बच्चों और वरिष्ठ नागरिकों के लिए खतरनाक हैं.

यह पूछे जाने पर कि पटाखे आवाज और धुआं भी पैदा करते हैं? इनसे ध्वनि प्रदूषण होता है, इससे बचने के लिए क्या करना चाहिए? इस पर अग्रवाल कहते हैं कि शोर का मनुष्य के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है. शोर या आवाज हवा से फैलती है. इसे डेसिबल में नापा जाता है.

विशेषज्ञों का कहना है कि 100 डेसिबल से ज्यादा आवाज का बुरा असर हमारी सुनने की क्षमता पर पड़ता है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार शहरों के लिए 45 डेसिबल की आवाज अनुकूल है. लेकिन भारत के बड़े शहरों में शोर का स्तर 90 डेसिबल से भी अधिक है. मनुष्य के लिए उचित स्तर 85 डेसिबल तक ही माना गया है. अनचाही आवाज मनुष्य पर मनोवैज्ञानिक असर पैदा करती है.

उन्होंने कहा कि शोर तनाव, अवसाद, उच्च रक्तपचाप, सुनने में परेशानी, टिन्नीटस, नींद में परेशानी आदि का कारण बन सकता है. तनाव और उच्च रक्तचाप सेहत के लिए घातक है, वहीं टिन्नीटस के कारण व्यक्ति की याददाश्त जा सकती है, वह अवसाद/ डिप्रेशन का शिकार हो सकता है. ज्यादा शोर दिल की सेहत के लिए अच्छा नहीं. शोर में रहने से रक्तचाप पांच से दस गुना बढ़ जाता है और तनाव बढ़ता है. ये सभी कारक उच्च रक्तचाप और कोरोनरी आर्टरी रोगों का कारण बन सकते हैं.

ऐसे में दिवाली के दौरान पटाखों व प्रदूषण से बचने के लिए क्या सावधानियां बरतें? इस सवाल पर डॉ. अग्रवाल ने कहा कि कोशिश रहे कि पटाखें न जलाएं या कम पटाखे फोड़ें. पटाखों के जलने से कार्बन डाईऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड और सल्फर ऑक्साइड जैसी गैसें निकलती हैं जो दमा के मरीजों के लिए खतरनाक हैं. हवा में मौजूदा धुंआ बच्चों और बुजुर्गों के लिए घातक हो सकता है.

उन्होंने सलाह दी कि प्रदूषित हवा से बचें, क्योंकि यह तनाव और एलर्जी का कारण बन सकती है. एलर्जी से बचने के लिए अपने मुंह को रूमाल या कपड़े से ढक लें. दमा आदि के मरीज अपना इन्हेलर अपने साथ रखें. अगर आपको सांस लेने में परेशानी हो तो तुरंत इसका इस्तेमाल करें और इसके बाद डॉक्टर की सलाह लें. त्योहारों के दौरान स्वस्थ जीवनशैली अपनाएं. अगर आपको किसी तरह असहजता महसूस हो तो तुरंत डॉक्टर की सलाह लें.

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सांस के गंभीर मरीज़ों के लिए AIIMS में नया इलाज, दावा - 'ठीक हो सकता है अस्थमा'

एम्स में ऐसे मरीज़ों के लिए ब्रॉंकियल थर्मोप्लास्टी तकनीक से इलाज शुरु किया गया है, जिन पर दवाएं बेकार हो चुकी हों और इनहेलर से भी फायदा ना हो पा रहा हो.


नई दिल्लीः दमघोंटू प्रदूषण में सांस लेने की कोशिश कर रहे दमा यानी अस्थमा के मरीज़ों के लिए देश के सबसे प्रतिष्ठित अस्पताल एम्स के डॉक्टरों ने नया इलाज शुरु किया है. ब्रॉंकोस्कोपी थर्मोप्लास्टी नाम की ये तकनीक ऐसे मरीज़ों के लिए वरदान साबित हो सकती है जिन पर इनहेलर और स्टीऱॉयड दवाओं का असर न हो रहा हो. एम्स देश का पहला अस्पताल है जहां ये इलाज पूरी तरह मुफ्त उपलब्ध है. ब्रांकोस्कापी थर्मोप्लास्टी आपरेशन थिएटर में की जाने वाली प्रक्रिया है. हांलाकि इस तकनीक में सर्जरी नहीं की जाती, लेकिन एक घंटे तक चलने वाली इस प्रक्रिया में मरीज़ को बेहोश करने की ज़रुरत पड़ती है.

इस तकनीक में मुंह के ज़रिए कैमरा लगी एक लंबी ट्यूब को सांस की नली में पहुंचाया जाता है. इस ट्यूब से गुजरते हुए एक कैथेटर पर लगी वायर सांस की नली में उस जगह पहुंचती हैं जहां दमे की वजह से सांस की नली की मांसपेशिया फूल गई हों. कैथेटर में लगी छोटी छोटी वायर यानी तारों से गर्मी जेनरेट की जाती है जो फूली हुई मांसपेशियों को जलाकर पतला कर देती है.

इस तरह सांस की नली को चौड़ा किया जाता है. इस प्रोसीजर में एक घंटे का वक्त लग सकता है. ये प्रक्रिया तीन हफ्तों के अंतराल पर तीन बार करनी पड़ती है. एम्स के विशेषज्ञों का दावा है कि इसके बाद 5 से 10 साल तक मरीज़ को किसी तरह की दिक्कत नहीं होती.

एम्स के निदेशक डॉ रंदीप गुलेरिया ने बताया कि इस तकनीक से इलाज के लिए कई भारतीय मरीज़ों को अमेरिका या यूरोपीय देशों का रुख करना पड़ता था. पिछले साल भारत के 6 से 8 प्राइवेट अस्पतालों में ये सुविधा शुरु तो हुई है लेकिन 5 से 7 लाख रुपए का इलाज का खर्च कई मरीज़ों की पहुंच से बाहर है. फिलहाल एम्स इस तकनीक से इलाज के लिए किसी तरह के पैसे नहीं ले रहा है.

एम्स में इस तकनीक के इस्तेमाल से एक मरीज़ का इलाज कामयाबी से पूरा कर लिया गया है. इलाज करने वाले डॉ करन मदान के मुताबिक अस्थमा के कुल मरीज़ों में से 15 से 20 फीसदी मरीज़ ऐसे हैं, जिन्हें इस तकनीक से ठीक किया जा सकता है. देश में बढ़ते जा रहे प्रदूषण की वजह से एम्स में सांस की बीमारी के मरीज़ो में 20 फीसदी की बढ़ोतरी हो गई हैं.

Tuesday, 30 October 2018

ये है हिमालयी वियाग्रा, नपुंसकता सहित इन 7 बीमारियों को करती है दूर

क्षेत्र में पायी जाने वाली बेहदी उपयोगी जड़ी-बूटी है. इसका सेवन शरीर को तमाम समस्याओं से राहत देता है. लाइलाज बीमारियों तक में इसके सेवन से आराम मिलता है.


नई दिल्ली : कैटरपिलर फंगस यानी हिमालयी वियाग्रा हिमालयी क्षेत्र में पायी जाने वाली बेहदी उपयोगी जड़ी-बूटी है. इसका सेवन शरीर को तमाम समस्याओं से राहत देता है. लाइलाज बीमारियों तक में इसके सेवन से आराम मिलता है. विशिष्ट प्रकार के पहाड़ी कीड़े पर उगने वाली फफूंद को हिमालयी वियाग्रा कहा जाता है. इसके भाव की बात करें तो यह सोने से भी महंगी मिलती है. एक किलोग्राम कैटरपिलर फंगस 60 लाख रुपये तक की मिलती है. इसको खाने से नपुंसकता से लेकर कैंसर तक का इलाज संभव है.

जलवायु परिवर्तन के कारण मुश्किल से मिल रही
हाल ही में आई एक रिपोर्ट में बताया गया कि जलवायु परिवर्तन के कारण इसका मिलना मुश्किल हो गया है. इसकी महंगी कीमत के कारण ही चीन और नेपाल में फफूंद यानी 'यार्चागुम्बा' को लेकर हुए झगड़ों में कई लोग मारे जा चुके हैं. इसका उत्पादन 3300 और 4000 मीटर हिमालय क्षेत्र के बीच में नेपाल, भूटान, भारत और तिब्बत में होता है. पतली और पीले रंग में मिलने वाली यह फफूंद काफी महंगी बिकती है.

लाइलाज बीमारियों के लिए रामबाण
हिमालयी वियाग्रा में एसओडी, फैटी एसिड, न्यूक्लीओसाइड प्रोटीन, विटामिन ए, विटामिन B1, B2, B6, B12, जिंक, कॉर्बन और कार्बोहाइड्रेड पाए जाते हैं. इन सभी का एक ही पदार्थ में मिलने के कारण यह लाइलाज बीमारियों के उपचार में रामबाण साबित होती है. आगे पढ़िए हिमालयी वियाग्रा खाने के 7 जबरदस्त फायदों के बारे में...

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नपुंसकता का इलाज
जैसा कि हिमालयी वियाग्रा के नाम से ही काफी कुछ समझ में आ रहा है. कई देशों में इसका सेवन नपुंसकता के उपचार में किया जाता है. ऐसा माना जाता है कि इसके सेवन से शारीरिक अशक्तता दूर होती है और शरीर में आंतरिक ताकत आती है. हालांकि वैज्ञानिक तौर पर इसके फायदे साबित नहीं हुए हैं.

श्वसन प्रणाली संबंधी उपचार
कई अध्ययनों से साफ हो चुका है कि कैटरपिलर फंगस यानी हिमालयी वियाग्रा में एंटोबायोटिक गुण हैं. इसके सेवन से फेफड़ों और श्वसन प्रणाली संबंधी समस्याओं का उपचार संभव है.

पुराने दर्द में मिलेगा आराम
अगर आपके घर में कोई शरीर के किसी भी हिस्से में पुराने से पुराने दर्द से पीड़ित है तो हिमालयी वियाग्रा का सेवन फायदा देगा. क्योंकि यह एक पीड़ानाशक औषधि है, यह साइटिका और पीठ दर्द के पुराने से पुराने दर्द में आराम देती है.

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शारीरिक ताकत दें
कैटरपिलर फंगस यानी हिमालयी वियाग्रा को खाने से आपके शरीर में स्फूर्ति बनी रहती है और शारीरिक क्षमता बढ़ती है. अगर आपका शरीर अक्सर थकान महसूस करता है तो हिमालयी वियाग्रा का सेवन फायदेमंद रहेगा.

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लिवर संबंधी उपचार
अक्सर लोगों में लिवर संबंधी रोग पाए जाते हैं. जिस व्यक्ति को लिवर संबंधी परेशानी होती है, वह अक्सर बीमार रहता है और कुछ भी अच्छे से खा पी नहीं पाता. चीन में हिमालयी वियाग्रा का सेवन हेपीटाइटस बी के उपचार और लिवर संबंधी समस्या के लिए किया जाता है.

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ल्यूकेमिया का इलाज
ल्यूकेमिया के उपचार में भी हिमालयी वियाग्रा बेहद कारगर साबित होती है. ल्यूकेमिया एक प्रकार का ब्लड कैंसर है जिसमें शरीर में सफेद रक्त कोशिकाओं की संख्या असामान्य रूप से बढ़ती हैं और इनके आकार में भी परिवर्तन होता है. ये जमाव स्वस्थ रक्त कोशिकाओं के विकास में बाधक होती हैं.

कुष्ठ रोग का उपचार
हिमालयी वियाग्रा का नियमित सेवन क्षय रोग के उपचार में सहायक रहता है. इसके अलावा इसके सेवन से कुष्ठ रोग का उपचार भी संभव है.

Monday, 29 October 2018

WHO ने कहा, 'भारत जैसे देशों के 98 प्रतिशत बच्चे जहरीली हवा के शिकार'

रिपोर्ट में बताया गया है कि खाना पकाने से घर के अंदर होने वाले वायु प्रदूषण और घर के बाहर के वायु प्रदर्शन से दूनिया भर में भारत जैसे निम्न और मध्यम आय वर्ग के देशों में बच्चों के स्वास्थ्य को भारी नुकसान पहुंचा है.


नई दिल्ली: विश्व स्वास्थ्य संगठन ने सोमवार को जारी एक रिपोर्ट में कहा कि भारत समेत निम्न एवं मध्यम आय-वर्ग के देशों में पांच साल से कम उम्र के 98 फीसद बच्चे 2016 में अतिसूक्ष्म कण (पीएम) से पैदा वायु प्रदूषण के शिकार हुए. डब्ल्यूएचओ ने अपनी रिपोर्ट ‘वायु प्रदूषण एवं बाल स्वास्थ्य: साफ हवा का नुस्खा’ में यह रहस्योद्घाटन किया कि 2016 में घरेलू और आम वायुप्रदूषण के संयुक्त प्रभाव से 15 साल से कम उम्र के तकरीबन छह लाख बच्चों की मौत हुई.

रिपोर्ट में बताया गया है कि खाना पकाने से घर के अंदर होने वाले वायु प्रदूषण और घर के बाहर के वायु प्रदर्शन से दूनिया भर में भारत जैसे निम्न और मध्यम आय वर्ग के देशों में बच्चों के स्वास्थ्य को भारी नुकसान पहुंचा है.

डब्ल्यूएचओ ने अपने अध्ययन में कहा,‘दूनिया भर में, निम्न और मध्यम आय वर्ग के देशों में पांच साल से कम उम्र के 98 फीसद बच्चे डब्ल्यूएचओ वायु गुणवत्ता मार्गनिर्देश के सामान्य स्तर से ऊपर के स्तर पर पीएम2.5 से रुबरु हो रहे हैं जबकि उच्च आय वर्ग के देशों में 52 फीसद बच्चे डब्ल्यूएचओ वायु गुणवत्ता मार्गनिर्देश के सामान्य स्तर से ऊपर के स्तर पर पीएम2.5 से रुबरु हो रहे हैं.’

रिपोर्ट में कहा गया, ‘‘वैश्विक स्तर पर, दुनिया भर के 18 साल से कम उम्र के 98 फीसद बच्चे डब्ल्यूएचओ वायु गुणवत्ता मार्गनिर्देश के सामान्य स्तर से ऊपर के स्तर पर घर से बाहर पीएम2.5 से रुबरु हो रहे हैं. इनमें पांच साल की उम्र के 63 करोड़ बच्चे और 15 साल से कम उम्र के 1.8 अरब बच्चे हैं.  पीएम2.5 2.5इक्रामीटर से कम व्यास के व्यास हैं. यह स्वास्थ्य के लिए पीएम 19 से ज्यादा खतरनाक हैं.

पिछले दो हफ्तों के दौरान पीएम2.5 खतरनाक स्तर पर चला गया है. सोमवार को दिल्ली के आकाश पर कोहरे की मोटी परत थी जबकि समग्र वायु गुणवत्ता एक्यूआई 348 पर पहुंच गई थी. केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार वायु गुणवत्ता ‘बहुत खराब’ की श्रेणी में थी.

प्रदूषण से परेशान? अपनाएं ये 10 आयुर्वेदिक उपाय !!

Pआप अपने जीवन में इन 10 आयुर्वेदिक तरीकों को अपना कर बढ़ते वायु प्रदूषण से खुद का बचाव कर सकते हैं.

नई दिल्ली : बढ़ता वायु प्रदूषण महानगरों में एक बड़ी समस्या बन कर उभरा है. महानगरों की इस प्रदूषित हवा में नाइट्रोजन ऑक्साइड, ओजोन के खतरनाक कण रहते हैं, जिसके कारण महानगरों में रहने वाले लोगों को कई तरह की बीमारियां होने का खतरा भी रहता है. डॉक्टरों का मानना है कि महानगरों में रहने वाले लोगों के फेफड़ों (lungs) में इससे सबसे ज्यादा संक्रमण होने की संभावना रहती है. प्रदूषण के कारण फेफड़ोंं (lungs) के अंदर वायु प्रवाह भी कम होने लगता है, जिस कारण फेफड़ों के अंदर मकस (mucous) काफी बढ़ जाता है. यह फेफड़ों को प्रभावी तरीके से बैक्टीरिया और वायरस को फ़िल्टर करने से भी रोकता है. वायु प्रदूषण फेफड़ों के कैंसर का कारण भी बन सकता है.

आयुर्वेद के अनुसार इस कारण त्रिदोष में असंतुलन होने की संभावना रहती है. इस कारण हमें कई अन्य बीमारियों भी हो सकती है. गुड़गांव के तनमत्रा आयुर्वेद की डॉक्टर ज्योत्सना मक्कड़ का मानना है कि प्रदूषण के प्रभाव को पूरी तरह रोका नहीं जा सकता है, लेकिन आप अपने जीवन में इन 10 आयुर्वेदिक तरीकों को अपना कर इससे बचाव कर सकते हैं.

1. नास्य कर्म (Nasal Drop Treatment): नास्य कर्म प्रक्रिया आपके नाक के अंदर की गंदगी को साफ करने में मदद करती है, जिससे आप इस प्रदूषित हवा में शामिल प्रदूषकों (pollutants) के कारण होने वाली एलर्जी (Allergy) को रोक सकते हैं. इस उपचार का लाभ आप पंचकर्मा प्रक्रिया के माध्यम से भी ले सकते हैं, लेकिन इसे सही विशेषज्ञ की सलाह और निगरानी में हीं करना चाहिए. नास्य कर्म प्रक्रिया में हर दिन सुबह में नाक में बादाम के तेल या गाय घी की दो बूंद डालनी होती है. यह न केवल नाक के अंदर गए प्रदूषक कणों (pollutants) को साफ करता है. इसके साथ ही इससे आपकी श्वास प्रणाली (Respiratory System) में  के प्रदूषक कणों (pollutants) को नाक के पार जाने से रोकता है.

2. तिल का तेल (Sesame Oil) को नाक के अंदर खींचना: हालांकि नाक हमारे शरीर का एक ऐसा अंग है जो हवा में मौजूद प्रदूषको (Pollutants) को रोकने के लिए सबसे अधिक प्रभावी फ़िल्टर है. Sesame Oil को नाक के अंदर खींचने से हम कुछ देर तक इस स्थिति से बच सकते हैं. आपको लगभग 15 मिनट तक मुंह में एक चम्मच तिल का तेल (Sesame Oil) डालकर रखना होगा और फिर उसे उगल देना होगा. इस उपाय से आप हानिकारक बैक्टीरिया को साफ कर सकते हैं. साथ ही यह हमारे मुंह के बाहर कई तरह की एलर्जी से लड़ने के लिए मौजूद श्लेष्म स्तर (mucous lining) को भी मजबूत करता है.

3. प्राणायाम और कपाल भाती : यह हमारी श्‍वास नली को साफ करने और प्रदूषण के दुष्प्रभाव से भी मुकाबला करने में मदद करता है. प्रदूषण से बचाव के लिए आप इन आसनों का नियमित रूप से अभ्यास करें.

4. अभयंगा ऑयल मसाज: इस उपाय से हमारे त्वचा (Skin) के अंदर मौजूद उन विषाक्त पदार्थ (Toxins) से छुटकारा पाने में मदद करता है, जो त्वचा (Skin) में चले जाते हैं. हमारे शरीर को विषाक्त पदार्थ (Toxins) से छुटकारा दिलाने (detoxifying) में यह रामबाण साबित हो सकता है. अभयंगा के लगातार प्रयोग आपके शरीर को रोग से लड़ने की क्षमता को बढ़ाता है और आपको हमेशा ऊर्जावान रखता है. आप ऑयल मसाज के लिए तिल के तेल (Sesame Oil) या फिर किसी अन्य आयुर्वेदिक तेल का इस्तेमाल कर सकते हैं.

5. स्वेदना मतलब पसीना बहाने का प्रयास : पसीना बहाने की इस प्रक्रिया को आयुर्वेद में स्वेदना कहा जाता है. सर्वांग (पूरा शरीर) को स्वेदना के माध्यम से जिसमें दशमूल जड़ी बूटी (दस पौधों की जड़ें) का उपयोग किया जाता है. इससे हमारे शरीर के अंदर मौजूद विषाक्त पदार्थ (Toxic Elements) बाहर करने में मदद करता है. इसके अलावा आप फेसियल स्टीम का भी प्रयोग कर सकते हैं. इसके लिए आप गर्म पानी में नीलगिरी ऑयल, तुलसी तेल, चाय के पेड़ का तेल और कैरम के बीज को मिलाकर चेहरे पर भाप ले सकते हैं..

6. नीम का पानी : इसके साथ त्वचा और बालों को धोकर भी आप अपनी त्वचा (Skin) और श्लेष्म झिल्ली(Mucous Membrance) में फंस गए प्रदूषक (pollutants) को साफ़ कर सकते हैं.

7. धूपन : आप जड़ी-बूटीयों को जलाकर धुआं भी ले सकते हैं. इसके लिए आप गूगल, करूर (Campour) अगुरु, लोबान, शालाकी जैसे जड़ी बूटीयों का इस्तेमाल कर सकते हैं. जड़ी बूटियों को जलाने और इन जड़ी बूटियों के धुएं को सांस लेने की प्रक्रिया आयुर्वेद में धूपन कहा जाता है. इससे न केवल हवा शुद्ध होती है बल्कि यह एक प्रभावी कीटाणुरोधक (Insecticide) के रूप में भी काम करता है. गूगल और शालाकी जैसी जड़ी बूटियां को कमरे में जलाकर रखने से आप अवसाद (Depression) और चिंता (Anxiety) जैसी समस्या से भी दूर हो सकते हैं.

8. संभव हो तो हवादार और खुले स्थानों में कुछ देर रहने का प्रयास करें.. क्योंकि हवा का सही तरीके (Proper Ventilation)नहीं होने से आपको सिरदर्द और सुस्ती की समस्या हो सकती है.. वैसे आम तौर पर आउटडोर हवा की गुणवत्ता है को इनडोर हवा से हमेशा बेहतर माना जाता है, लेकिन इस समय बेहतर होगा आप छोटी अवधि के लिए खिड़कियां को खोल कर रखें. फायरप्लेस और वेंटिलेशन सिस्टम को साफ रखें...

9. अगर संभव हो तो अलोवेरा, तुलसी, नीम, बांस, पीस लिली, अंग्रेजी आइवी, क्राइसेंथेमम्स, अरेका हथेली, मनी प्लांट जैसे पौधे अपने घर में उगाएं. ये पौधे न केवल हवा को साफ करने में मदद करते हैं. बल्कि नीम और तुलसी जैसे पौधे भी कई बीमारियों में काफी उपयोगी होते हैं...

10. आप हमेशा ताजा पके हुए गर्म भोजन करने का प्रयास करें. साथ हीं अपने आहार(Food Diet) में अदरक और कैरम के बीज को भी शामिल करें. श्वसन और प्रतिरक्षा प्रणाली( Respiratory and immunine system) को मजबूत करने के लिए तुलसी, पिपली, ट्रिफाला और घी का भी इस्तेमाल किया जा सकता है...

(यह जानकारी गुड़गांव के तनमत्रा आयुर्वेदा की डॉक्टर ज्योत्सना मक्कड़ ने दी है)
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ब्रेन स्ट्रोक में सुनने-देखने की क्षमता खो देता है मरीज, दुनिया का हर छठा व्यक्ति है इसका शिकार

इससे प्रभावित होने पर व्यक्ति के शरीर का कोई एक हिस्सा सुन्न होने लगता है और उसमें कमजोरी या लकवा जैसी स्थिति होने लगती है. मरीज को बोलने में दिक्कत आ सकती है, झुरझुरी आती है और उसके चेहरे की मांस पेशियां कमजोर हो जाती हैं जिससे लार बहने लगती है.


नई दिल्ली : दुनियाभर में फैली तमाम जानलेवा बीमारियों के बीच एक और खतरनाक बीमारी धीरे धीरे लोगों को अपनी गिरफ्त में ले रही है. इस बीमारी का नाम है ब्रेन स्ट्रोक. आज हालत यह है कि दुनिया का हर छठा व्यक्ति कभी न कभी ब्रेन स्ट्रोक का शिकार हुआ है और 60 से ऊपर की उम्र के लोगों में मौत का दूसरा सबसे बड़ा कारण ब्रेन स्ट्रोक है. यह 15 से 59 वर्ष के आयुवर्ग में मृत्यु का पांचवां सबसे बड़ा कारण है.

30फीसदी मरीजों को पड़ती है दूसरे की सहारे की जरूरत
विशेषज्ञों के अनुसार स्ट्रोक आने के बाद 70 फीसदी मरीज अपनी सुनने और देखने की क्षमता खो देते हैं. साथ ही 30 फीसदी मरीजों को दूसरे लोगों के सहारे की जरूरत पड़ती है. आमतौर पर जिन लोगों को दिल की बीमारी होती है उनमें से 20 फीसदी मरीजों को स्ट्रोक की समस्या होती है. धर्मशिला नारायणा सुपरस्पेशलिटी हॉस्पिटल के सीनियर कंसलटेंट, न्यूरो-सर्जरी डॉ आशीष कुमार श्रीवास्तव बताते है कि मस्तिष्क के किसी हिस्से में रक्त की आपूर्ति बाधित होने या गंभीर रूप से कम होने के कारण स्ट्रोक होता है. उनके अनुसार मस्तिष्क के ऊतकों में ऑक्सीजन और पोषक तत्वों की कमी होने पर कुछ ही मिनटों में मस्तिष्क की कोशिकाएं मृत होने लगती हैं इसलिए समय रहते रोगी को उपचार मिलने से उसे सामान्य स्थिति में लाया जा सकता है, अन्यथा मृत्यु अथवा स्थायी विकलांगता हो सकती है.

सही समय पर इलाज मिलने से सही हो सकती है बीमारी
उन्होंने बताया कि ब्रेन स्ट्रोक को समय पर सही इलाज देकर ठीक किया जा सकता है, लेकिन इलाज में देरी होने पर लाखों न्यूरॉन्स क्षतिग्रस्त हो जाते हैं और मस्तिष्क के अधिकतर कार्य प्रभावित होने लगते हैं. इससे प्रभावित होने पर व्यक्ति के शरीर का कोई एक हिस्सा सुन्न होने लगता है और उसमें कमजोरी या लकवा जैसी स्थिति होने लगती है. मरीज को बोलने में दिक्कत आ सकती है, झुरझुरी आती है और उसके चेहरे की मांस पेशियां कमजोर हो जाती हैं जिससे लार बहने लगती है.

हर साल आते हैं 15 लाख नए मामले
उन्होंने बताया कि देश में हर साल ब्रेन स्ट्रोक के लगभग 15 लाख नए मामले दर्ज किए जाते हैं और यह असामयिक मृत्यु और विकलांगता की एक बड़ी वजह बनता जा रहा है. यहां यह भी अपने आप में परेशान करने वाला तथ्य है कि हर 100 में से लगभग 25 ब्रेन स्ट्रोक रोगियों की आयु 40 वर्ष से नीचे है. यह हार्ट अटैक के बाद दुनिया भर में मौत का दूसरा सबसे आम कारण है.

क्या है बीमारी के लक्ष्ण
पी.एस.आर.आई हॉस्पिटल के न्यूरोलॉजिस्ट डॉ अमित श्रीवास्तव बताते है कि समय रहते स्ट्रोक के लक्षणों को पहचानकर तत्काल उपचार कराने पर कुछ ही समय में यह बीमारी ठीक हो जाती है. इसके लक्षणों और तत्काल एहतियाती उपायों की जानकारी देते हुए डा. गोयल ने बताया कि यदि किसी व्यक्ति का चेहरा एक तरफ से टेढ़ा होने लगे और उसे बोलने में दिक्कत हो तो उस व्यक्ति को ज्यादा से ज्यादा मुस्कुराना चाहिए ताकि चेहरे की मांसपेशियों की कसरत हो. इसी तरह अगर एक हाथ कमजोर या सुन्न लगे तो उपचार मिलने से पहले उसे ऊपर नीचे करने की कोशिश करें.

उन्होंने बताया कि यदि बोलने में दिक्कत हो तो ऐसे व्यक्ति किसी एक वाक्य को बार बार दोहराएं और उसका सही उच्चारण करने की कोशिश करें. वह हिदायत देते हुए कहते हैं कि इनमें से कोई भी लक्षण नजर आने पर मरीज को तत्काल किसी नजदीकी अस्पताल में लेकर जाएं. गोल्डन ऑवर में उपचार मिलने से मरीज को स्ट्रोक से बचाया जा सकता है.

क्यों तेजी से फैल रही है ये बीमारी
चिकित्सकों के मुताबिक इसका मुख्य कारण उच्च रक्तचाप, मधुमेह, रक्त शर्करा, उच्च कोलेस्ट्रॉल, शराब, धूम्रपान और मादक पदार्थों की लत के अलावा आरामतलब जीवन शैली, मोटापा, जंक फूड का सेवन और तनाव है. युवा रोगियों में यह अधिक घातक साबित होता है, क्योंकि यह उन्हें जीवन भर के लिए विकलांग बना सकता है.

डॉ. राजुल अग्रवाल, सीनियर न्यूरोलॉजिस्ट, श्री बालाजी एक्शन मेडिकल इंस्टिट्यूट के अनुसार पहले यह समस्या बढती उम्र में होती थी वही आज स्ट्रोक का खतरा युवाओ पर भी मंडरा रहा है. अनियमित जीवन शैली, खानपान और तनाव स्ट्रोक होने के मुख्य कारणों में से है. इससे बचाव के लिए व्यायाम, उचित खानपान और नशे से दूर रहने की सबसे ज्यादा जरूरत है. साथ ही व्यक्ति को तनाव से बचने की कोशिश करनी चाहिए. तनाव कई बीमारियों की जड़ है जो धीरे धीरे घुन की तरह शरीर को खोखला कर देती हैं.
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हेल्थ टिप्स : इस मौसम में सेहत को दुरुस्त रखेंगे ये 6 आदतें

आजकल तापमान तेजी से गिरना शुरू हो गया है। दिन अब पहले से छोटे हो रहे हैं। यह एक ऐसा मौसम है कि जगह -जग मच्छर पनप रहे हैं और जरा लापरवाही में शर्दी जुकाम पकड़ रहा है। कुछ लोगों को खांसी बुखार अपनी चपेट में ले रहा है। ऐसे में खुद को सेहतमंद बनाए रखने के लिए दैनिक लाइफ स्टाइल और खान  -पान में कुछ बलाव की जरूरत है। यहां 6 आदतों के बारे में बता रहे हैं जो आपको इस मौसम के बदलाव में बीमार होने स बचाएंगे-



ये 6 आदतें बीमार होने से बचाएंगी-
1- अपने भोजन में साबुत अनाज/बीन्स सामिल करें - इन्हें आप सब्जी, सलाद, दाल और स्प्राउट्स के रूप में ले सकते हैं।

2- हल्दी का इस्तेमाल बढ़ाएं- मौसम का तापमान गिरने पर हल्दी का प्रयोग आपको बीमार होने से बचाता है। हल्दी में स्ट्रॉन्ग एंटीऑक्सीडेंट होते हैं जो सर्दी जुकाम से हमारी रक्षा करते हैं। इसलिए खाने में हल्दी मसाले के रूप में जरूर शामिल करें।

3- सेब खाएं - कहावत है कि एक सेब खाने से डॉक्टर दूर रहता है। यानी इस मौसम में सेब का सेवन बेहतर है। इसमें कई प्रकार के विटाइमिन्स और फाइबर होने के कारण यह काफी लाभकारी है।

4- पर्याप्त नींद लें - बहुत सी बीमारियां और कमजोरी कम नींद के कारण होती हैं, इसलिए जरूरी है कि आप भरपूर नींद लें और बीमारियों को दूर रखें।

5- दालचीनी खाएं - गर्म मसालों में दालचीनी प्रमुख है। आजकल के मौसम में सब्जियों के साथ मसाले के रूप में दालचीनी का सेवन काफी लाभदायक साबित हो सकता है। इसकी खुशबू भी आपको खुशनुमा रखती है।

6- कद्दू की सब्जी खांए - कद्दू का नाम सुनने में भले ही ज्यादा अच्छा न लगता हो लेकिन यह सेहत के लिए बहुत ही फायदेमंद है। यह बहुत सुपाच्य और हल्का होता है। इसमें मिनरल भी भरपूर मात्रा में होते हैं।

Sunday, 28 October 2018

विश्व सोराइसिस दिवस: दुनिया में 12.50 करोड़ लोग त्वचा रोग से पीड़ित

सोराइसिस रोग तभी होता है जब रोग प्रतिरोधक तंत्र स्वस्थ कोशिकाओं पर हमला करता है. इससे त्वचा की कई कोशिकाएं बढ़ जाती है, जिससे त्वचा पर सूखे और कड़े चकत्ते बन जाते है क्योंकि त्वचा की कोशिकाएं त्वचा की सतह पर बन जाती है.


नई दिल्ली: दुनियाभर में सोराइसिस रोग से तीन फीसदी आबादी यानी करीब 12.50 करोड़ लोग प्रभावित हैं. रोग प्रतिरोधक प्रणाली की गड़बड़ी से सोराइसिस रोग होता है. इसका कास्मेटिक या त्वचा के प्रकार से कोई संबंध नहीं है, हालांकि इस बीमारी के होने के बाद इससे जुड़ी कई दूसरी बीमारियां और परेशानियां हो सकती है. विश्व में 29 अक्टूबर को विश्व सोराइसिस दिवस के रूप में मनाया जाता है. इस साल की ग्लोबल थीम में सोराइसिस के लक्षणों के महत्व पर जोर डाला गया है. सोराइसिस को अक्सर स्किन इंफेक्शन या कॉस्मेटिक प्रॉब्लम माना जाता है, जिसका आसानी से इलाज हो सकता है. लेकिन दरअसल सोराइसिस इसके बिल्कुल उलट है.

दरअसल, सोराइसिस रोग तभी होता है जब रोग प्रतिरोधक तंत्र स्वस्थ कोशिकाओं पर हमला करता है. इससे त्वचा की कई कोशिकाएं बढ़ जाती है, जिससे त्वचा पर सूखे और कड़े चकत्ते बन जाते है क्योंकि त्वचा की कोशिकाएं त्वचा की सतह पर बन जाती है.

नोएडा स्थित मैक्स मल्टी स्पेश्लियटी अस्पताल में डमाटरेलॉजी कंसलटेंट डॉ. राजीव सेखरी ने कहा, "त्वचा पर होने वाले अन्य रोगों से अलग सोराइसिस नाम का रोग अति सक्रिय प्रतिरोधक प्रणाली से होता है, जिसमें शरीर की प्रतिरोधक प्रणाली ही स्वस्थ कोशिकाओं और ऊतकों पर हमला करती है. सोराइसिस के सामान्य लक्षणों में शरीर के प्रभावित सामान्य अंगों में खुजली होती है. त्वचा पर पपड़ी जैसी ऊपरी परत जम जाती है. शरीर में लाल-लाल धब्बे और चकत्ते हो जाते हैं. सोराइसिस का कोई संपूर्ण इलाज नहीं है, लेकिन सोइरासिस के लक्षणों की गंभीरता के बावूद इसे काफी हद तक कंट्रोल किया या जा सकता है."

धारणा के विपरीत सोराइसिस किसी को छूने से नहीं फैल सकता और केवल कुछ मामलों में यह वंशानुगत हो सकता है.

सैफी अस्पताल और प्रिंस अली खान हॉस्पिटल के डमेटरेलॉजिस्ट और रिन्यूडर्मसेंटर स्किन हेयर लेजर्स व एसेस्थेटिक्स के डायरेक्टर डॉ. शहनाज आरसीवाला ने कहा कि सोराइसिस के लक्षणों को हम अपने समाज में गंभीरता से नहीं लेते. बीमारी को नजरअंदाज करने और सोराइसिस रोग के संबंध में जागरूरकता की कमी से समय पर रोग का पता नहीं चल पाता और इस बीमारी के इलाज में काफी रुकावट आती है. त्वचा और शरीर पर होने वाले दूसरे रोगों का तो इलाज हैए लेकिन सोराइसिस का कोई इलाज नहीं है. इसलिए सोराइसिस के लक्षणों के प्रति जागरूक रहना बहुत आवश्यक है और इसके कुछ खास लक्षणों को देखकर रोग के इलाज की प्रक्रिया शुरू कर देनी चाहिए.

सोराइसिस का समय से और प्रभावी ढंग से इलाज न किया गया तो सोराइसिस से कई दूसरी सहायक बीमारियों का जन्म हो सकता है. बदकिस्मती से सोराइसिस का कोई इलाज नहीं है. हालांकि समय से रोग की पहचान और बीमारी के प्रभावी प्रबंधन से स्थिति को बेहतर रखा जा सकता है. त्वचा रोग विशेषज्ञ के पास जाकर इस रोग को पहचानने में मदद मिल सकती है

Saturday, 27 October 2018

विदेशों में आयुर्वेदिक दवाओं को मान्यता दिलाने को आयुष मंत्रालय ने की पहल


नई दिल्ली: आयुर्वेद एवं अन्य देशी चिकित्सा पद्धतियों की दवाओं और इन पैथियों के डॉक्टरों को विदेशों में भी मान्यता मिलेगी. राष्ट्रीय आयुर्वेद दिवस के मौके पर सरकार यह पहल करने जा रही है. इसके फलस्वरूप आने वाले दिनों में आयुर्वेद की दवाएं विदेशों में दवा के रूप में बिक सकेंगी और डॉक्टर भी वहां प्रैक्टिस कर सकेंगे. आयुष मंत्रालय इसके लिए प्रयास कर रहा है. मंत्रालय के अनुसार, पिछले कुछ सालों के दौरान आयुर्वेद से कई सफल दवाएं निकाली गई हैं. इनमें जैसे मधुमेह की दवा बीजीआर-34 ऐसी दवा है, जिसे वैज्ञानिक एवं औद्यौगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) ने आधुनिक वैज्ञानिक पद्धति से तैयार कर बाजार में उतारा है. इसके क्लिनिकल ट्रायल भी हुए हैं.

इसी तरह गर्भनिरोधक 'सहेली', आर्थराइटिस की दवा समेत कई दवाएं हैं, लेकिन विदेशों में यह दवा के रूप में इसलिए अभी तक नहीं बिक पाती हैं, क्योंकि इन्हें वहां के नियमों के मुताबिक दवा के रूप में पंजीकृत नहीं कराया गया. मंत्रालय डब्ल्यूएचओ की मदद से दवाओं के लिए मानक तय करने के बाद इन्हें हर देश में वहां के नियमों के अनुरूप दवा के रूप में पंजीकृत कराएगा. तब ये पोषक पदार्थ के रूप में नहीं बल्कि दवा के रूप में बिकेंगी.

आयुष मंत्रालय की इस पर पहल पर एमिल फार्मास्युटिकल के कार्यकारी निदेशक संचित शर्मा ने कहा, "यह भारत के लिए गर्व की बात होगी कि हमारे आयुर्वेद को दवा के रूप में दूसरे देशों के नागरिक भी अपनाएं. वे आयुर्वेद का लाभ उठाने के लिए भारत आते हैं, लेकिन अब उन्हें अपने देश में ही ये दवाएं तय नियमों के तहत मिलेंगी."

मंत्रालय के अनुसार भारत में स्वीकृत आयुर्वेद, यूनानी एवं सिद्ध की दवाओं को विदेशों में भी स्वत: ही कानूनी मान्यता होती है. लेकिन हर देश के दवा नियामक के अलग-अलग नियम हैं, जिनके तहत दवाओं को गुजरना होता है. आयुष मंत्रालय इन दवाओं को उन नियमों के अनुरूप लाने की तैयारी कर रहा है. जैसे दवाओं के पेटेंट हों. उनके क्लिनिकल ट्रायल किए जाएं. दवाएं गुड मैन्युफैक्च रिंग प्रैक्टिस (जीएमपी) के अनुरूप बनाई जाएं.

इसी प्रकार कई देशों में स्विट्रजरलैंड, आस्ट्रेलिया, यूएई, कोलंबिया, हंगरी, क्यूबा, न्यूजीलैंड समेत कई देशों में कुछ औपचारिकताएं पूरी करने के बाद आयुर्वेद चिकित्सकों को प्रैक्टिस करने की अनुमति दी जाने लगी है. यह भी बड़ी उपलब्धि है. इनमें से कई देशों में भारतीय चिकित्सकों को टेस्ट पास करना जरूरी होता है. कुछ देशों में अलग से एड ऑन कोर्स करना होता
आयुर्वेद एवं अन्य देशी चिकित्सा पद्धतियों की दवाओं और इन पैथियों के डॉक्टरों को विदेशों में भी मान्यता मिलेगी.


सर्दी-जुकाम से परेशान हैं तो इन घरेलू नुस्खों से कुछ घंटों में मिलेगा आराम

मौसम बदलने के साथ ही सर्दी-जुकाम की समस्या आम हो जाती है और इसमें आपकी तकलीफ भी बढ़ जाती है. हालांकि यह कोई गंभीर तो बीमारी नहीं है.

नई दिल्ली : मौसम बदलने के साथ ही सर्दी-जुकाम की समस्या आम हो जाती है और इसमें आपकी तकलीफ भी बढ़ जाती है. हालांकि यह कोई गंभीर तो बीमारी नहीं है. लेकिन इसमें दवाइयों का असर भी कम होता है. इसके लिए सबसे अच्छा और घरेलू उपाय है देसी नुस्खों का इस्तेमाल. घर में बनाए जाने वाले इन देसी नुस्खों से आप आसानी से सर्दी जुकाम को काबू में कर अपना इलाज कर सकते है. आगे पढ़िए घर में आसानी से बनाए जाने वाले घरेलू उपाय जिनकी मदद से आप सर्दी-जुकाम से चंद घंटों में ही राहत पा सकते हैं

दूध और हल्दी
गर्म पानी या फिर गर्म दूध में एक चम्मच हल्दी मिलाकर पीने से सर्दी जुकाम में तेजी से फायदा होता है. यह नुस्खा न सिर्फ बच्चों बल्कि बड़ों के लिए भी कारगर साबित होता है. हल्दी एंटी वायरल और एंटी बैक्टेरियल होती है जो सर्दी जुकाम से लड़ने में मददगार होती है.

अदरख की चाय
अदरख के यूं तो तमाम फायदे हैं लेकिन अदरख की चाय सर्दी-जुकाम में भारी राहत प्रदान करती है. सर्दी-जुकाम या फिर फ्लू के सिम्टम में ताजा अदरख को बिल्कुल बारीक कर लें और उसमें एक कप गरम पानी या दूध मिलाए. उसे कुछ देर तक उबलने के बाद पीए. यह नुस्खा आपको सर्दी जुकाम से राहत पाने में तेजी से मदद करता है.

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नींबू और शहद
नींबू और शहद के इस्तेमाल से सर्दी और जुकाम में फायदा होता है. दो चम्मच शहद में एक चम्मच नींबू का रस एक ग्लास गुनगुने पानी या फिर गर्म दूध में मिलाकर पीने से इसमें काफी लाभ होता है.

लहसुन
लहसुन सर्दी-जुकाम से लड़ने में काफी मददगार होता है. लहसुन में एलिसिन नामक एक रसायण होता है जो एंडी बैक्टेरियल, एंटी वायरल और एंटी फंगल होता है. लहसुन की पांच कलियों को घी में भुनकर खाए. ऐसा एक दो बार करने से जुकाम में आराम मिल जाता है. सर्दी जुकाम के संक्रमण को लहसुन तेजी से दूर करता है.

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तुलसी पत्ता और अदरख
तुलसी और अदरख को सर्दी-जुकाम के लिए रामबाण माना जाता है. इसके सेवन से इसमें तुरंत राहत मिलती है. एक कप गर्म पानी में तुलसी की पांच-सात पत्तियां ले. उसमें अदरख के एक टुकड़े को भी डाल दे. उसे कुछ देर तक उबलने दे और उसका काढ़ा बना ले. जब पानी बिल्कुल आधा रह जाए तो इसे आप धीरे-धीरे पी ले. यह नुस्खा बच्चों के साथ बड़ों को भी सर्दी-जुकाम में राहत दिलाने के लिए असरदार होता है.

Friday, 26 October 2018

मर्द रोजाना दूध में डालकर पिएं ये चीज, 7 दिन में दिखाई देगा चमत्कार

शरीर के लिए दूध का सेवन बेहद फायदेमंद रहता है. इससे शरीर को ताकत मिलती है और आप शारीरिक तौर पर भी फिट रहते हैं. लेकिन बात अगर पुरुषों की हो तो उनके लिए दूध मसल्स और हड्डियों के लिए बहुत फायदेमंद रहता है.

शरीर के लिए दूध का सेवन बेहद फायदेमंद रहता है. इससे शरीर को ताकत मिलती है और आप शारीरिक तौर पर भी फिट रहते हैं. लेकिन बात अगर पुरुषों की हो तो उनके लिए दूध मसल्स और हड्डियों के लिए बहुत फायदेमंद रहता है.

नई दिल्ली : शरीर के लिए दूध का सेवन बेहद फायदेमंद रहता है. इससे शरीर को ताकत मिलती है और आप शारीरिक तौर पर भी फिट रहते हैं. लेकिन बात अगर पुरुषों की हो तो उनके लिए दूध मसल्स और हड्डियों के लिए बहुत फायदेमंद रहता है. दूध में मौजूद प्रोटीन शरीर में में आसानी से आब्जर्व हो जाता है. दूध के साथ अखरोट को मिला दिया जाए तो इसकी शक्ति दोगुनी हो जाती है. अमेरिकन जर्नल ऑफ फिजियोलॉजी की रिसर्च के अनुसार दूध में मौजूद प्रोटीन बॉडी में आसानी से घुल जाते हैं. दूध में अखरोट का पेस्ट मिलाकर पीने के भी कई फायदे होते हैं. अखरोट वाले दूध में मुनक्का, बादाम और केसर मिलाकर पीने से पुरुषों की कमजोरी दूर होती है. इसे आयुर्वेद में सीमेन की क्वालिटी इम्प्रूव करने का भी उपाय बताया गया है.

अखरोट का दूध पीने के फायदे
अखरोट को रात में पानी में भिगो दें. सुबह इसे पीसकर दूध में मिला लें. अच्छी तरह से उबल जाने पर आंच से उतार लें. इसे गुनगुना कर पिएं. इसे पीने से मसल्स मजबूत होती हैं. सिक्स पैक एब्स बनाने में यह ड्रिंक फायदेमंद हैं. इसमें ओमेगा 3 फैटी एसिड्स होते हैं. यह इनफर्टिलिटी रिलेटेड प्रॉब्लम से बचाता है. इसमें कैल्शियम और फॉस्फोरस होता है. इससे हड्डियां मजबूत होती हैं. इसका सेवन करने से 7 दिन में ही असर दिखाई देना शुरू हो जाएगा.

अगर आप फोर्टिफाइड फूड ज्यादा खा रहे हैं तो हो जाएं सावधान!

सात दिन तक किशमिश खाएंगे मर्द तो
किशमिश खाना सभी के लिए फायदेमंद है. लेकिन पुरुष अगर किशमिश खाकर गुनगुना पानी पीते हैं तो उनकी हेल्थ को कई फायदे होते हैं. नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ आयुर्वेद, जयपुर के डॉ. सी आर यादव बताते हैं पुरुषों के लिए किशमिश का एक दमदार नुस्खा. इसे रोज खाने से सिर्फ सात दिनों में ही असर दिखाई देने लगता है. रोज किशमिश को पानी में भिगोकर रात भर रखा रहने दें. इसे सुबह खाली पेट खाने से भी पुरुषों की हेल्थ को कई फायदे होते हैं.

विटामिन A के अत्याधिक सेवन से हड्डियां कमजोर होने का खतरा, रिपोर्ट में खुलासा

किशमिश में आयरन सेलेनियम होता है. इससे स्टेमिना बढ़ता है. इसमें पाए जाने वाले अमीनो एसिड से लो लिबिडो की प्रॉब्लम दूर होती है. अमीनो एसिड से स्पर्म काउंट बढ़ता है. यह फर्टिलिटी रिलेटेड प्रॉबलम से बचाता है.

Thursday, 25 October 2018

Health Tips: स्वस्थ रहने के देसी तरीके, जरूर अपनाएं

स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ दिमाग का निवास होता है। जिस व्यक्ति की काया निरोग रहती है, वह हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त करता है। क्योंकि स्वस्थ व्यक्ति का ही शरीर और दिमाग पूर्ण सक्रिय रहता है। स्वस्थ...