Tuesday, 12 February 2019

जानिए क्या है आंखों का कैंसर? स्मार्टफोन की मदद से कैसे होता है डिटेक्ट

अगर आखों की पुतली या उसके आस पास सफेद रंग का कुछ रिफ्लैक्शन दिखता है तो ये 'रैटिनोब्लासटोमा" के लक्षण हो सकते हैं.

नई दिल्लीः आए दिन कैंसर पर हो रही रिसर्च में तरह तरह के कैंसर सामने आ रहे हैं, इसमें कई तो जानलेवा साबित होते हैं और कई ऐसे भी हैं जिनका सही समय पर इलाज कराने से मरीज की जान बचाई जा सकती है. इन्हीं में से एक है 'रैटिनोब्लासटोमा'. ये एक खास तरह का आंखों का कैंसर है जो 6 महीने से लेकर 6 साल तक के बच्चों में पाया जाता है. डॉक्टरों के मुताबिक ये हर 15000 में एक बच्चे में पाया जाता है. ये एक रेयर तरह का कैंसर है जिसकी वजह से लोगों को इसके बारे में बहुत कम जानकारी होती है. लेकिन सही समय पर इलाज न होने पर ये ट्यूमर का रुप लेकर शरीर के बाकी हिस्सों में फैल जाता है और अन्य कैंसर की तरह ये भी खतरनाक साबित हो सकता है.

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राहत की बात ये है कि इसके लक्षण बाकी कैंसर के मुकाबले जल्दी सामने आ जाते हैं और इसका पता मामूली स्मार्टफोन के कैमरे से लगाया जा सकता है. इसके लिए डिम लाईट में कैमरे की फ्लैश लाईट ऑन करके बच्चे की आंखो का तस्वीर लेनी होती है, फोटो इतनी नज़दीक से लेनी होती है कि बच्चे की आंख की पुतली साफ नजर आनी चाहिए. आम तौर पर आंखो की पुतली काली होती है, लेकिन अगर आखों की पुतली या उसके आस पास सफेद रंग का कुछ रिफ्लैक्शन दिखता है तो ये 'रैटिनोब्लासटोमा" के लक्षण हो सकते हैं. ऐसे में बच्चे को खास तौर पर आंखों के डॉक्टर के पास ले जाना जरुरी है.

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इस जानलेवा बीमारी के बारे में लोगों के बीच जागरुकता फैलाने का जिम्मा जानकी देवी कॉलेज के छात्रों ने लिया है. इन छात्रों ने हेल्थ सेंटर्स के साथ मिलकर घर घर जाकर, पोस्टरों और डेमो के जरिए लोगों के बीच 'रैटिनोब्लासटोमा' की जागरुकता का अभियान चलाया है. जानकी देवी कॉलेज में एचडीएफई डिपार्टमेंट की प्रोफेसर, निर्मला मुरलीधर की मानें तो ''रैटिनोब्लासटोमा" के बारे में जागरुकता फैलाना इसलिए भी जरुरी था क्योंकि न सिर्फ आम लोग बल्की कई डॉक्टर भी इस बिमारी के बारे में नहीं जानते.

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21 साल के शिवम 'रैटिनोब्लासटोमा' के शिकार रहे हैं सही समय पर पता लगने से शिवम की जान तो बच गई, लेकिन उसने अपनी एक आंख हमेशा के लिए खो दी. शिवम बताते हैं कि 1 साल की उमर में उनके माता पिता ने देखा कि वो बहुत ज्यादा सोते हैं और उठने पर ज्यादातर रोते रहते हैं. साथ ही उनकी एक आंख लाइट पड़ने पर सफेद चमकती थी. आस पास के डॉक्टरों ने कुछ दवाई तो दी, लेकिन किसी ने इस कैंसर के बारे में उनको नहीं बताया.' रैटिनोब्लासटोमा के बारे में उन्हे तब पता चला जब तकलीफ बढ़ने पर ऐम्स में दिखाया गया.

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शोध के अनुसार, विशेष जीनों में भिन्नता ऑक्सीटोसिन की कार्यपद्धति से जुड़ी होती है और यह समग्र रूप से सफल वैवाहिक जीवन पर असर डालती है.

न्यूयॉर्क : आपके सफल वैवाहिक जीवन में जीन की अहम भूमिका होती. यह बात हालिया एक शोध में सामने आई है. पूर्व के शोध में भी इस बात के संकेत दिए गए हैं कि सफल वैवाहिक जीवन आंशिक तौर पर आनुवांशिक कारकों से प्रभावित होता है और ऑक्सीटोसिन सामाजिक समर्थन में मददगार होता है.

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ऑक्सीटोसिन की कार्यपद्धति से जुड़ा मामला
हालिया शोध के अनुसार, विशेष जीनों में विभिन्नता ऑक्सीटोसिन की कार्यपद्धति से जुड़ी होती है और यह समग्र रूप से सफल वैवाहिक जीवन पर असर डालती है. जीन पार्टनर्स के बीच समन्वय के लिए भी महत्वपूर्ण होते हैं.

इस शोध में विभिन्न तरह के जीनोटाइप- ऑक्सीटोन रिसेप्टर जीन (ओएक्सटीआर)के संभावित जीन संयोजन-का मूल्यांकन किया गया है, जो बताते है कि किस तरह जीवनसाथी एक दूसरे का सहयोग करते हैं. यह सफल वैवाहिक जीवन का प्रमुख निर्धारक होता है. ऑक्सीटोसीन के नियमन व रिलीज से जुड़े होने की वजह से ओएक्सटीआर को लक्ष्य बनाया गया.

अमेरिका में हुई है शोध
अमेरिका के बिंघमटन विश्वविद्यालय के एसोसिएट प्रोफेसर रिचर्ड मैटसन ने कहा, "सफल वैवाहिक जीवन के लिए जीन मायने रखते हैं, क्योंकि व्यक्ति के लिए जीन प्रासंगिक होते है और व्यक्तियों की विशेषताएं शादी पर असर डालती हैं."

Saturday, 9 February 2019

प्रेगनेंसी के दौरान कैमिकल से बनाए दूरी, नहीं तो बच्चे को घेर सकती है ये बीमारी

लंदन : गर्भवती महिलाओं के जहरीले रसायन के संपर्क में आने से उनके बच्चों के फेफेड़े में परेशानी हो सकती है. यह बात हाल ही में द लांसेट जर्नल में प्रकाशित एक रिपोर्ट से उजागर हुई है. स्पेन के ग्लोबल हेल्थ इंस्टीट्यूट के शोधकर्ता अपने शोध के दौरान माता-शिशु के 1,033 जोड़ों से प्राप्त तथ्यों का परीक्षण करने के बाद इस नतीजे पर पहुंचे कि बच्चों के जन्म से पहले पैराबेंस फ्थेलेट्स और परफ्लुओरोअल्काइल सब्सटैंस (पीएफएएस) के संपर्क और बच्चों के फेफड़े के ठीक से काम न करने के बीच संबंध है.


इस तरह के खाने में पाया जाता है पीएफएएस
घरेलू उत्पादों और खाद्य पदार्थो की पैकेजिंग में पीएफएएस पाए जाते हैं. भोजन और पानी के जरिए जीवों द्वारा पीएफएएस अवशोषित किया जा सकता है और नाभि के माध्यम से अजन्मे बच्चों तक जा सकता है.

कैसे कर सकते हैं बचाव
विश्वविद्यालय के शोधकर्ता प्रोफेसर मार्टिन वृझीड ने कहा, "इन तथ्यों का जन-स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण निहितार्थ है. रोकथाम के उपायों से रासायनिक पदार्थो के संपर्क से बचा जा सकता है. इसके अलावा सख्त विनियमन और जन-जागरूकता के लिए उपभोक्ता वस्तुओं पर लेबल लगाने से बचपन में फेफेड़े खराब होने से रोकने में मदद मिल सकती है और लंबे समय में स्वास्थ्य में इसका लाभ मिल सकता है."

डिप्रेशन है एक आम समस्या
गर्भवती महिलाओं के शरीर में बहुत सारे बदलाव आते हैं जिसके चलते तनाव हो जाना आम बात है. वर्किंग वुमन ये तनाव ज़्यादा झेलती हैं. इसके अलावा, कई महिलाओं को लेबर पेन और डिलीवरी से जुड़ी अन्य बातों को सोचकर भी तनाव हो जाता है. इससे बचने के लिए आप योगा और मेडिटेशन का सहारा ले सकती हैं.

Wednesday, 6 February 2019

स्टडी में हुआ खुलासा, क्लाइमेट चेंज से पानी के नीचे बसे जंगल को भी खतरा

समुद्रों में अनुमानित वार्मिंग और अम्लीकरण के चलते केल्प की सतह पर सूक्ष्म जीवों में परिवर्तन होता है जिससे बीमारी होती है.

मेलबर्न: जलवायु परिवर्तन पानी के नीचे समुद्री घास-पात से बने जंगलों के सूक्ष्मजीवों को प्रभावित कर उनके अस्तित्व के लिए खतरा बनता जा रहा है. एक नये अध्ययन में ऐसा दावा किया गया है. ऑस्ट्रेलिया की यूनिवर्सिटी ऑफ सिडनी और सिडनी इंस्टीट्यूट ऑफ मरीन साइंस के शोधकर्ताओं ने बताया कि मनुष्यों में, उनकी आंतों के सूक्ष्मजीवों में किसी तरह का बदलाव उनकी सेहत बिगाड़ देता है.

उन्होंने बताया कि इसी तरह की प्रक्रिया विशाल समुद्री शैवालों (केल्प) में भी होती है. समुद्रों में अनुमानित वार्मिंग एवं अम्लीकरण के चलते केल्प की सतह पर सूक्ष्म जीवों में परिवर्तन होता है जिससे बीमारी होती है और मछली पालन को खतरा पहुंचने की आशंका रहती है. जलवायु परिवर्तन वैश्विक पैमाने पर जैव विविधता को प्रभावित कर रहा है. समुद्री परिप्रेक्ष्य में समुद्रों के गरम होने एवं अम्लीकरण से पानी में अपना निवास स्थान बनाने वाली प्रमुख प्रजातियों जैसे कोरल (मूंगा) एवं बड़े समुद्री शैवालों की संख्या घट रही है जिससे जैव विविधता प्रभावित हो रही है.

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इस अध्ययन में दिखाया गया कि ये दो प्रक्रियाएं भूरे रंग के विशाल शैवालों की सतह पर मौजूद सूक्ष्म जीवों में परिवर्तन ला सकती हैं जिससे बीमारी जैसे लक्षण पैदा हो सकते हैं. केल्प की सतह का तेजी से गर्म होना, ब्लीचिंग एवं अंतत: क्षरण होने से जीवों की प्रकाश संश्लेषण करने (फोटोसिंथेसिस) की क्षमता और संभवत: जीवित रहने की क्षमता भी प्रभावित होती है. शोधकर्ताओं के मुताबिक इससे विश्व भर के समुद्री जंगल प्रभावित हो सकते हैं. यह अध्ययन प्रोसीडिंग्स ऑफ द रॉयल सोसाइटी बी पत्रिका में प्रकाशित हुआ है.

Sunday, 27 January 2019

अगर आप नाइट ड्यूटी में करते हैं काम तो हो जाएं चौकन्ने, नहीं तो डीएन हो जाएगा खराब

रात्रिपाली में काम करने से ‘डीएनए’ को नुकसान पहुंच सकता है और कैंसर, हृदय रोग तथा तंत्रिका तंत्र से जुड़े गंभीर रोग हो सकते हैं.

बीजिंग: रात्रिपाली में काम करने से ‘डीएनए’ को नुकसान पहुंच सकता है और कैंसर, हृदय रोग तथा तंत्रिका तंत्र से जुड़े गंभीर रोग हो सकते हैं.  एक अध्ययन में यह पाया गया है. एनेस्थेसिया जर्नल में प्रकाशित अध्ययन में शोधार्थियों ने 49 चिकित्सकों के विभिन्न समय पर लिए गए रक्त के नमूनों का विश्लेषण किया है.


हांगकांग विश्वविद्यालय के सियू वेई चोई ने बताया कि अध्ययन के नतीजों से यह स्पष्ट है कि एक रात में नहीं सोने पर शरीर में ऐसी समस्याएं आ सकती हैं, जो गंभीर रोगों का वजह बन सकती हैं. शोधार्थियों ने पाया कि अध्ययन में शामिल किए गए रात्रिपाली में काम करने वाले चिकित्सकों के शरीर में डीएनए की मरम्मत की गति धीमी पड़ गई और इनके डीएनए को उन लोगों की तुलना में ज्यादा नुकसान पहुंचा जो रात्रिपाली में नहीं थे.

उन्होंने कहा कि डीएनए को नुकसान पहुंचने का विश्लेषण कर कैंसर और हृदय रोग जैसे रोगों के बढ़ते खतरे को समझने में मदद मिल सकती है.


'मिशन इंद्रधनुष' को मिला ग्राम स्वराज का साथ, देश के हर कोने में हो रहा है बच्चों का टीकाकरण

जब से मिशन इन्द्रधनुष कार्यक्रम को भारत सरकार के ग्राम स्वराज अभियान में शामिल किया गया है, तब इस टीकाकरण अभियान को एक अलग ही गति मिली है.

भारत के 30 लाख वर्ग किलोमीटर के दायरे में 22 राष्ट्रीय भाषाओं और कई धर्म-संस्कृतियों के साथ 1.3 मिलियन से अधिक लोग फैले हुए हैं. ऐसे में सभी परिवारों तक किसी योजना की पहुंच बनाना निश्चित ही एक चुनौतीपूर्ण काम है. और खासकर टीकाकरण अभियान के सामने 0-2 वर्ष तक के हर बच्चे तक अपनी पहुंच बनाना एक बड़ी चुनौती है. लेकिन बड़ी चुनौती के बाद ही मिशन इंद्रधनुष के तहत टीकाकरण के कारण को सफलतापूर्व अंजाम तक पहुंचाया जा रहा है.


हालाँकि, जब से मिशन इन्द्रधनुष कार्यक्रम को भारत सरकार के ग्राम स्वराज अभियान में शामिल किया गया है, तब इस टीकाकरण अभियान को एक अलग ही गति मिली है. मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश के डॉक्टर तथा आशा कार्यकर्ता इस अभियान में पूरे जोर-शोर से डटे हुए हैं. इन राज्यों में इस अभियान को लेकर स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं, सामुदायिक मोबलाइज़र में एक नई ऊर्जा देखने को मिली है, जिसके बल पर ये लोग कठिन परिस्थितियों में भी कठिन क्षेत्रों तक पहुंचने के लिए अथक प्रयास कर रहे हैं.

Mission Indradhanush

केंद्रीय भंडार से वैक्सीन को लेकर उसे राज्यों में, फिर जिलों में, और फिर देशभर में कोल्ड स्टोरेज में वितरित किया जाता है. मिशन इन्द्रधनुष दौरों के लिए विस्तृत माइक्रोप्लान विकसित करने और उस पर निरंतर काम करने के लिए सरकार और ब्लॉक, जिला, राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर भागीदार मिलते हैं.

Mission Indradhanush

और ये भागीदार ही विस्तृत स्थानीय माइक्रोप्लान अभियान की सफलता की कुंजी हैं. टीकाकरण दल अपने टीकाकरण क्षेत्र के नक्शे बनाते हैं. जागरुकता के पोस्टर पूरे मोहल्ले में लगाए जाते हैं. व्यस्त चौराहों पर बैनर लगाए जाते हैं. माता-पिता के बीच जागरूकता बढ़ाने के लिए बच्चों की रैलियों और स्कूलों में जागरूकता सत्र आयोजित किए जाते हैं.

Mission Indradhanush

स्वास्थ्य कार्यकर्ता सामाजिक संगठनों, मंदिर-मस्जिदों और अन्य धार्मिक, सामाजिक संस्थाओं के साथ निरंतर बैठकें करते हैं और अभियान को सफल बनाने के लिए इन संस्थानों की मदद लेते हैं. ये सामाजिक लोग आगे आकर माता-पिता को अपने बच्चे के टीकाकरण के लिए जागरुक करते हैं.

Mission Indradhanush

उत्तर भारत में तो यह अभियान बहुत अच्छी तरह से काम कर ही रहा है, साथ में पूर्वोत्तर, दक्षिण भारत के सुदूर इलाकों में मिशन इंद्रधनुष की सतरंगी रोशनी को फैलाने के लिए कार्यकर्ता दिनरात जुटे हुए हैं. पूर्वोत्तर तथा दक्षिण राज्यों में भीषण बाढ़ हो या आंधी-तूफान, हर विषम परिस्थिति में कार्यकर्ता लोगों तक अपनी पहुंच बना रहे ह

Monday, 31 December 2018

Medical News Today: Diabetes and erectile dysfunction may be genetically linked

New research, published in the American Journal of Human Genetics, suggests that a genetic susceptibility to type 2 diabetes may be a cause of erectile dysfunction.
man checking his blood sugar levels in bed
New research finds evidence that erectile dysfunction and type 2 diabetes are genetically linked.
Erectile dysfunction (ED) affects approximately 30 million adults in the United States.

There are several risk factors, including older age, being overweight, and being a smoker.

Having certain other conditions, such as diabetes, some types of cardiovascular disease, and chronic liver disease, can also predispose someone to ED.

For instance, the risk of developing ED is two to three times higher in people with type 2 diabetes than in those without the condition, according to the National Institutes of Health (NIH).

So far, the evidence supporting the link between type 2 diabetes and ED has only been observational, meaning that researchers could not establish causality.

However, a new study strengthens the link between the two conditions and confirms that a genetic predisposition to type 2 diabetes can lead to ED. The findings also add to the mounting evidence that certain genetic locations are associated with ED.

Anna Murray, an associate professor at the University of Exeter Medical School, and Professor Michael Holmes, of the Nuffield Department of Population Health at the University of Oxford — both in the United Kingdom — led the new research.
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