Thursday, 21 February 2019

अगर आप हैं दिल के रोगों से परेशान तो मत होइए दुखी, वैज्ञानिकों ने खोजा ये तरीका

वैज्ञानिकों ने ऐसे पेसमेकर विकसित किये हैं जो दिल की धड़कनों की ऊर्जा से संचालित हो सकते हैं.
अगर आप हैं दिल के रोगों से परेशान तो मत होइए दुखी, वैज्ञानिकों ने खोजा ये तरीका

बीजिंग: वैज्ञानिकों ने ऐसे पेसमेकर विकसित किये हैं जो दिल की धड़कनों की ऊर्जा से संचालित हो सकते हैं. सूअरों में इस यंत्र का सफलतापूर्वक परीक्षण किया गया है. शोधकर्ताओं ने कहा कि जर्नल एसीएस नैनो में प्रकाशित यह अध्ययन एक स्व-संचालित कार्डियक पेसमेकर बनाने की दिशा में एक कदम है. ये पेसमेकर प्रत्यारोपित भी हो सकते है और इन्होंने आधुनिक चिकित्सा को बदल दिया है, जिससे हृदय की धड़कन को नियंत्रित करके कई लोगों की जान बचाई जा सकती है.
शोधकर्ताओं ने कहा कि हालांकि, इसमें एक भारी कमी यह है कि उनकी बैटरी केवल पांच से 12 साल तक चलती है. चीन में सेंकेंड मिलिट्री मेडिकल यूनिवर्सिटी और शंघाई जिओ टोंग विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने इस समस्या पर काबू पाने पर काम किया. एक पारंपरिक पेसमेकर को हंसली (कॉलरबोन) के पास की त्वचा के नीचे प्रत्यारोपित किया जाता है.
इसकी बैटरी और विद्युत-तंत्र विद्युत संकेत उत्पन्न करते हैं जो प्रत्यारोपित इलेक्ट्रोड के माध्यम से हृदय तक पहुंचाए जाते हैं. 










.(प्रतीकात्मक तस्वीर)





Wednesday, 13 February 2019

वजन बढ़ने पर भी महसूस हो रही है कमजोरी, तो समझ लीजिए आपको घेरे है ये बीमारी

चिकित्सक ने कहा कि मोटापे का मुकाबला करने के लिए वजन कम करना और आदर्श वजन को बनाए रखना नुकसान कम करने की दिशा में सही कदम हैं.

नई दिल्ली : चिकित्सकों का कहना है कि टाइप-2 डायबिटीज का खतरा शरीर के बढ़ते वजन के साथ बढ़ता जाता है. उनका कहना है कि वजन बढ़ने से अगर कमजोरी हो तो यह एक बीमारी है और अगर वजन कम होने से ताकत मिले तो यह बीमारी से उबरना है. चिकित्सक ने कहा कि मोटापे का मुकाबला करने के लिए वजन कम करना और आदर्श वजन को बनाए रखना नुकसान कम करने की दिशा में सही कदम हैं.

उन्होंने कहा कि मोटे लोगों में सामान्य वजन वाले लोगों की तुलना में इस हालत को प्राप्त करने की संभावना तीन से सात गुना अधिक होती है लेकिन छह माह के दौरान वजन में पांच से 10 प्रतिशत तक की कमी से मधुमेह व मोटापे से संबंधित अन्य बीमारियों की शुरुआत में देरी की जा सकती है.

हार्ट केयर फाउंडेशन (एचसीएफआई) के अध्यक्ष, डॉ. के.के. अग्रवाल ने कहा, "जब हमारा वजन बढ़ता है, तो हमें अधिक ताकत हासिल करनी चाहिए और जब हम अपना वजन कम करते हैं, तो हमें ताकत कम करनी चाहिए. यह एक मौलिक चिकित्सा सिद्धांत है. अगर हम वजन हासिल करते हैं और कमजोर महसूस करते हैं तो यह एक बीमारी है और जब हम अपना वजन कम करते हैं और ताकत हासिल करते हैं, तो हम बीमारी से उबर जाते हैं."

उन्होंने कहा, "20 वर्ष की आयु के बाद पांच किलोग्राम से अधिक वजन नहीं बढ़ना चाहिए. उसके बाद वजन बढ़ना केवल वसा के संचय के कारण होगा, जो इंसुलिन प्रतिरोध पैदा करता है. इंसुलिन प्रतिरोध भोजन को ऊर्जा में बदलने की अनुमति नहीं देता है. इंसुलिन प्रतिरोध की स्थिति में, आप जो भी खाते हैं, वह वसा में परिवर्तित हो जाता है. चूंकि यह ऊर्जा में परिवर्तित नहीं होता है इसलिए आपको कमजोरी महसूस होती है."


डॉ. अग्रवाल ने कहा, "जब आप दवाओं या चहलकदमी द्वारा इंसुलिन प्रतिरोध को कम करते हैं तब मैटाबोलिज्म सामान्य हो जाता है और आप जो भी खाते हैं वह ऊर्जा में परिवर्तित होता जाता है और आप ताकत हासिल करना शुरू कर देते हैं."

वहीं सीनियर कंसल्टेंट डायबेटोलॉजिस्ट डॉ. अनूप मिश्रा ने कहा, "एक आदर्श वजन हासिल करना महत्वपूर्ण नहीं है. मोटापे में मधुमेह की शुरुआत को रोकने के लिए वजन कम करना चिकित्सा उद्देश्य है. कुछ भी वजन कम करना बिल्कुल वजन कम न होने से बेहतर है. यहां तक कि एक किलोग्राम वजन घटाना भी एक अच्छी बात है."

उन्होंने कहा, " मिठास वाले पेय से कैलोरी में कमी लाने पर (प्रतिदिन केवल एक सविर्ंग लेकर) 18 महीनों में लगभग दो-डेढ़ पाउंड वजन कम किया जा सकता सकता है. ठोस आहार के सेवन से शरीर सेल्फ-रेगुलेट कर सकता है. हालांकि हम जो पीते हैं, उस पर यह लागू नहीं होता है. शरीर लिक्विड कैलोरी को समायोजित नहीं करता है इसलिए समय के साथ इससे वजन बढ़ने लगता है."

चिकित्सकों ने कुछ सुझाव :

* जटिल कार्बोहाइड्रेट का सेवन कम ही करें क्योंकि वे रक्त शर्करा के स्तर और इंसुलिन के उत्पादन को बढ़ाते हैं. इंसुलिन प्रतिरोध वाले लोगों में, इस वृद्धि से आगे वजन बढ़ सकता है. नियमित अंतराल पर अपने रक्त शर्करा के स्तर की निगरानी करें.

* सप्ताह में पांच बार हर दिन लगभग 30 से 45 मिनट की शारीरिक गतिविधि करने का लक्ष्य रखें.

* किसी भी रूप में रिफाइंड चीनी का उपभोग न करें क्योंकि यह रक्त प्रवाह में अधिक आसानी से अवशोषित हो सकता है और आगे जटिलताओं का कारण बन सकता है.

* ध्यान और योग जैसी गतिविधियों के माध्यम से तनाव कम करें.

क्या आप जानते हैं, इंसान के पेट में कितने हजार जीवाणुओं की अनजान प्रजातियां पाई जाती हैं

अनुसंधानकर्ताओं ने दुनिया भर में व्यक्तियों से मिले नमूनों के विश्लेषण के लिए गणन विधियों का इस्तेमाल किया.

लंदन: अनुसंधानकर्ताओं ने मानव उदर में दो हजार अनजान प्रजातियों का पता चलाया.  इससे मानव स्वास्थ्य को बेहतर ढंग से समझने और उदर रोगों के निदान एवं उपचार में भी मदद मिल सकती है. यूरोपियन मोलेक्यूलर बायोलोजी लेबोरेटरी और वेलकम सैंगर इंस्टीट्यूट के अनुसंधानकर्ताओं ने जीवाणुओं की जिन प्रजातियों की खोज की है उन्हें अभी तक प्रयोगशाला में विकसित नहीं किया गया है. अनुसंधानकर्ताओं ने दुनिया भर में व्यक्तियों से मिले नमूनों के विश्लेषण के लिए गणन विधियों का इस्तेमाल किया.

विज्ञान पत्रिका ‘नेचर’ में प्रकाशित अध्ययन के नतीजे दिखाते हैं कि अनुसंधानकर्ता उत्तर अमेरिकी और यूरोपीय समुदायों में आम तौर पर पाए जाने वाले माइक्रोबायोम्स से मिलते जुलते माइक्रोब की एक समग्र सूची बनाने के करीब हैं, लेकिन दुनिया के दूसरे क्षेत्रों से आकंड़े उल्लेखनीय रूप से गायब हैं.

मानव उदर में ‘माइक्रोब’ की ढेर सारी प्रजातियां रहती हैं और सामूहिक रूप से उन्हें ‘माइक्रोबायोटा’ के तौर पर जाना जाता है. इस क्षेत्र में गहन अध्ययन के बावजूद अनुसंधानकर्ता अब भी माइक्रोब की एक एक प्रजाति को पहचानने और यह पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं कि मानव स्वास्थ्य में उनकी क्या भूमिका है.


मानव उदर से बाहर नहीं टिक पाने से इस दिशा में ज्यादा दिक्कत हुई है. यूरोपियन मोलेक्यूलर बायोलोजी लेबोरेटरी के रॉब फिन ने बताया, ‘‘हम देख रहे हैं कि यूरोपीय और उत्तर अमेरिकी आबादियों में ढेर सारी प्रजातियां उभर कर आ रही हैं. ’’

वेलकम सैंगर इंस्टीट्यूट के ग्रुप लीडर ट्रेवर लॉली ने बताया, ‘‘इस तरह के अनुसंधान हमें मानव उदर का तथाकथित ब्ल्यूप्रिंट तैयार करने में मदद कर रहे हें जो भविष्य में मानव स्वास्थ्य और रोग को बेहतर ढंग से समझने में और यहां तक की उदर रोगों के निदान और उपचार में मदद कर सकते हैं.’’

Tuesday, 12 February 2019

2 साल का बच्चा बना सबसे कम उम्र का अंगदाता, बचाईं 6 जिंदगियां

मुंबईः देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में दो साल के बच्चे ने 6 ज़िंदगिया बचाई हैं, इसके साथ ये बच्चा सबसे कम उम्र का अंगदाता भी बन गया है. दो साल के बच्चे के ब्रेन डेड होने के बाद उसके अंगों को दान कर घातक बीमारी से जूझ रहे 6  मरीजों को जीवनदान दिया गया है. बच्चे को इलाज के लिए मुंबई के बॉम्बे अस्पताल में भर्ती कराया गया था. रविवार को डॉक्टरों ने बच्चे को ब्रेन डेड घोषित कर दिया, जिसके बाद परिवार ने अंग दान करने का फैसला लिया. बच्चे का हार्ट, किडनी, लिवर और आंखें दान कर दी गईं है.

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बताया जा रहा है की मासूम को 4 फरवरी को बॉम्बे अस्पताल में उपचार के लिए भर्ती किया गया था. जहां इलाज के दौरान रविवार को उसकी स्थिति और भी खराब हो गई और डॉक्टरों ने उसे ब्रेन डेड घोषित कर दिया. अस्पताल से मिली जानकारी के मुताबिक बच्चे को ब्रेनस्टेम ट्यूमर था. ब्रेन डेड की खबर सुनते ही अभिभावक का कलेजा दर्द से फट गया, लेकिन शोक और दु:ख की इस घड़ी में भी वे मानवता नहीं भूले और बच्चे का अंगदान करके दूसरों की जिंदगी बचाने का फैसला लिया. उस बच्ची के माता पिता से बात करने के बाद यह मालूम पड़ा की वे पुणे के रहने वाले है और बच्ची के इलाज के लिए खास मुंबई आये हुए थे.   


बॉम्बे अस्पताल से मिली जानकारी के अनुसार, बच्चे का हार्ट चेन्नै स्थित अपोलो अस्पताल में भेजा गया है. एक किडनी लीलावती, जबकि दूसरी ग्लोबल अस्पताल को भेजी गई है. वहीं लिवर ठाणे स्थित ज्यूपिटर अस्पताल को दिया गया है. इसके अलावा बच्चे की आंख अंधेरी के एक आई बैंक को दी गई है. बॉम्बे अस्पताल के जनरल फिजिशियन गौतम भंसाली और वरिष्ठ हृदय रोग विशेषज्ञ डॉ. अनिल शर्मा ने कहा कि बेहद कम उम्र में बच्चे को खोने के बाद भी अभिभावक दूसरों कि जिंदगी बचाने के बारे में सोचे यह बहुत बड़ी बात है. 

जानिए क्या है आंखों का कैंसर? स्मार्टफोन की मदद से कैसे होता है डिटेक्ट

अगर आखों की पुतली या उसके आस पास सफेद रंग का कुछ रिफ्लैक्शन दिखता है तो ये 'रैटिनोब्लासटोमा" के लक्षण हो सकते हैं.

नई दिल्लीः आए दिन कैंसर पर हो रही रिसर्च में तरह तरह के कैंसर सामने आ रहे हैं, इसमें कई तो जानलेवा साबित होते हैं और कई ऐसे भी हैं जिनका सही समय पर इलाज कराने से मरीज की जान बचाई जा सकती है. इन्हीं में से एक है 'रैटिनोब्लासटोमा'. ये एक खास तरह का आंखों का कैंसर है जो 6 महीने से लेकर 6 साल तक के बच्चों में पाया जाता है. डॉक्टरों के मुताबिक ये हर 15000 में एक बच्चे में पाया जाता है. ये एक रेयर तरह का कैंसर है जिसकी वजह से लोगों को इसके बारे में बहुत कम जानकारी होती है. लेकिन सही समय पर इलाज न होने पर ये ट्यूमर का रुप लेकर शरीर के बाकी हिस्सों में फैल जाता है और अन्य कैंसर की तरह ये भी खतरनाक साबित हो सकता है.

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राहत की बात ये है कि इसके लक्षण बाकी कैंसर के मुकाबले जल्दी सामने आ जाते हैं और इसका पता मामूली स्मार्टफोन के कैमरे से लगाया जा सकता है. इसके लिए डिम लाईट में कैमरे की फ्लैश लाईट ऑन करके बच्चे की आंखो का तस्वीर लेनी होती है, फोटो इतनी नज़दीक से लेनी होती है कि बच्चे की आंख की पुतली साफ नजर आनी चाहिए. आम तौर पर आंखो की पुतली काली होती है, लेकिन अगर आखों की पुतली या उसके आस पास सफेद रंग का कुछ रिफ्लैक्शन दिखता है तो ये 'रैटिनोब्लासटोमा" के लक्षण हो सकते हैं. ऐसे में बच्चे को खास तौर पर आंखों के डॉक्टर के पास ले जाना जरुरी है.

किडनी खराब होने पर नहीं ढूंढना पड़ेगा डोनर, नई तकनीक का हुआ आविष्कार

इस जानलेवा बीमारी के बारे में लोगों के बीच जागरुकता फैलाने का जिम्मा जानकी देवी कॉलेज के छात्रों ने लिया है. इन छात्रों ने हेल्थ सेंटर्स के साथ मिलकर घर घर जाकर, पोस्टरों और डेमो के जरिए लोगों के बीच 'रैटिनोब्लासटोमा' की जागरुकता का अभियान चलाया है. जानकी देवी कॉलेज में एचडीएफई डिपार्टमेंट की प्रोफेसर, निर्मला मुरलीधर की मानें तो ''रैटिनोब्लासटोमा" के बारे में जागरुकता फैलाना इसलिए भी जरुरी था क्योंकि न सिर्फ आम लोग बल्की कई डॉक्टर भी इस बिमारी के बारे में नहीं जानते.

डायबिटीज की जांच में अब नहीं होगा दर्द, वैज्ञानिकों ने ईजाद की नई तकनीक

21 साल के शिवम 'रैटिनोब्लासटोमा' के शिकार रहे हैं सही समय पर पता लगने से शिवम की जान तो बच गई, लेकिन उसने अपनी एक आंख हमेशा के लिए खो दी. शिवम बताते हैं कि 1 साल की उमर में उनके माता पिता ने देखा कि वो बहुत ज्यादा सोते हैं और उठने पर ज्यादातर रोते रहते हैं. साथ ही उनकी एक आंख लाइट पड़ने पर सफेद चमकती थी. आस पास के डॉक्टरों ने कुछ दवाई तो दी, लेकिन किसी ने इस कैंसर के बारे में उनको नहीं बताया.' रैटिनोब्लासटोमा के बारे में उन्हे तब पता चला जब तकलीफ बढ़ने पर ऐम्स में दिखाया गया.

ये है शादी के बाद पति-पत्नी के सुख और दुख का कारण, खुल गया राज

शोध के अनुसार, विशेष जीनों में भिन्नता ऑक्सीटोसिन की कार्यपद्धति से जुड़ी होती है और यह समग्र रूप से सफल वैवाहिक जीवन पर असर डालती है.

न्यूयॉर्क : आपके सफल वैवाहिक जीवन में जीन की अहम भूमिका होती. यह बात हालिया एक शोध में सामने आई है. पूर्व के शोध में भी इस बात के संकेत दिए गए हैं कि सफल वैवाहिक जीवन आंशिक तौर पर आनुवांशिक कारकों से प्रभावित होता है और ऑक्सीटोसिन सामाजिक समर्थन में मददगार होता है.

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ऑक्सीटोसिन की कार्यपद्धति से जुड़ा मामला
हालिया शोध के अनुसार, विशेष जीनों में विभिन्नता ऑक्सीटोसिन की कार्यपद्धति से जुड़ी होती है और यह समग्र रूप से सफल वैवाहिक जीवन पर असर डालती है. जीन पार्टनर्स के बीच समन्वय के लिए भी महत्वपूर्ण होते हैं.

इस शोध में विभिन्न तरह के जीनोटाइप- ऑक्सीटोन रिसेप्टर जीन (ओएक्सटीआर)के संभावित जीन संयोजन-का मूल्यांकन किया गया है, जो बताते है कि किस तरह जीवनसाथी एक दूसरे का सहयोग करते हैं. यह सफल वैवाहिक जीवन का प्रमुख निर्धारक होता है. ऑक्सीटोसीन के नियमन व रिलीज से जुड़े होने की वजह से ओएक्सटीआर को लक्ष्य बनाया गया.

अमेरिका में हुई है शोध
अमेरिका के बिंघमटन विश्वविद्यालय के एसोसिएट प्रोफेसर रिचर्ड मैटसन ने कहा, "सफल वैवाहिक जीवन के लिए जीन मायने रखते हैं, क्योंकि व्यक्ति के लिए जीन प्रासंगिक होते है और व्यक्तियों की विशेषताएं शादी पर असर डालती हैं."

Saturday, 9 February 2019

प्रेगनेंसी के दौरान कैमिकल से बनाए दूरी, नहीं तो बच्चे को घेर सकती है ये बीमारी

लंदन : गर्भवती महिलाओं के जहरीले रसायन के संपर्क में आने से उनके बच्चों के फेफेड़े में परेशानी हो सकती है. यह बात हाल ही में द लांसेट जर्नल में प्रकाशित एक रिपोर्ट से उजागर हुई है. स्पेन के ग्लोबल हेल्थ इंस्टीट्यूट के शोधकर्ता अपने शोध के दौरान माता-शिशु के 1,033 जोड़ों से प्राप्त तथ्यों का परीक्षण करने के बाद इस नतीजे पर पहुंचे कि बच्चों के जन्म से पहले पैराबेंस फ्थेलेट्स और परफ्लुओरोअल्काइल सब्सटैंस (पीएफएएस) के संपर्क और बच्चों के फेफड़े के ठीक से काम न करने के बीच संबंध है.


इस तरह के खाने में पाया जाता है पीएफएएस
घरेलू उत्पादों और खाद्य पदार्थो की पैकेजिंग में पीएफएएस पाए जाते हैं. भोजन और पानी के जरिए जीवों द्वारा पीएफएएस अवशोषित किया जा सकता है और नाभि के माध्यम से अजन्मे बच्चों तक जा सकता है.

कैसे कर सकते हैं बचाव
विश्वविद्यालय के शोधकर्ता प्रोफेसर मार्टिन वृझीड ने कहा, "इन तथ्यों का जन-स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण निहितार्थ है. रोकथाम के उपायों से रासायनिक पदार्थो के संपर्क से बचा जा सकता है. इसके अलावा सख्त विनियमन और जन-जागरूकता के लिए उपभोक्ता वस्तुओं पर लेबल लगाने से बचपन में फेफेड़े खराब होने से रोकने में मदद मिल सकती है और लंबे समय में स्वास्थ्य में इसका लाभ मिल सकता है."

डिप्रेशन है एक आम समस्या
गर्भवती महिलाओं के शरीर में बहुत सारे बदलाव आते हैं जिसके चलते तनाव हो जाना आम बात है. वर्किंग वुमन ये तनाव ज़्यादा झेलती हैं. इसके अलावा, कई महिलाओं को लेबर पेन और डिलीवरी से जुड़ी अन्य बातों को सोचकर भी तनाव हो जाता है. इससे बचने के लिए आप योगा और मेडिटेशन का सहारा ले सकती हैं.

Wednesday, 6 February 2019

स्टडी में हुआ खुलासा, क्लाइमेट चेंज से पानी के नीचे बसे जंगल को भी खतरा

समुद्रों में अनुमानित वार्मिंग और अम्लीकरण के चलते केल्प की सतह पर सूक्ष्म जीवों में परिवर्तन होता है जिससे बीमारी होती है.

मेलबर्न: जलवायु परिवर्तन पानी के नीचे समुद्री घास-पात से बने जंगलों के सूक्ष्मजीवों को प्रभावित कर उनके अस्तित्व के लिए खतरा बनता जा रहा है. एक नये अध्ययन में ऐसा दावा किया गया है. ऑस्ट्रेलिया की यूनिवर्सिटी ऑफ सिडनी और सिडनी इंस्टीट्यूट ऑफ मरीन साइंस के शोधकर्ताओं ने बताया कि मनुष्यों में, उनकी आंतों के सूक्ष्मजीवों में किसी तरह का बदलाव उनकी सेहत बिगाड़ देता है.

उन्होंने बताया कि इसी तरह की प्रक्रिया विशाल समुद्री शैवालों (केल्प) में भी होती है. समुद्रों में अनुमानित वार्मिंग एवं अम्लीकरण के चलते केल्प की सतह पर सूक्ष्म जीवों में परिवर्तन होता है जिससे बीमारी होती है और मछली पालन को खतरा पहुंचने की आशंका रहती है. जलवायु परिवर्तन वैश्विक पैमाने पर जैव विविधता को प्रभावित कर रहा है. समुद्री परिप्रेक्ष्य में समुद्रों के गरम होने एवं अम्लीकरण से पानी में अपना निवास स्थान बनाने वाली प्रमुख प्रजातियों जैसे कोरल (मूंगा) एवं बड़े समुद्री शैवालों की संख्या घट रही है जिससे जैव विविधता प्रभावित हो रही है.

इस सदी के अंत तक दुनिया के अधिकतर महासागरों का बदल जाएगा रंग, जानिए क्या है वजह

इस अध्ययन में दिखाया गया कि ये दो प्रक्रियाएं भूरे रंग के विशाल शैवालों की सतह पर मौजूद सूक्ष्म जीवों में परिवर्तन ला सकती हैं जिससे बीमारी जैसे लक्षण पैदा हो सकते हैं. केल्प की सतह का तेजी से गर्म होना, ब्लीचिंग एवं अंतत: क्षरण होने से जीवों की प्रकाश संश्लेषण करने (फोटोसिंथेसिस) की क्षमता और संभवत: जीवित रहने की क्षमता भी प्रभावित होती है. शोधकर्ताओं के मुताबिक इससे विश्व भर के समुद्री जंगल प्रभावित हो सकते हैं. यह अध्ययन प्रोसीडिंग्स ऑफ द रॉयल सोसाइटी बी पत्रिका में प्रकाशित हुआ है.